एरीट्रिया की स्वतंत्रता संग्राम: चौंकाने वाले तथ्य जिनकी अनदेखी आपको भारी पड़ सकती है

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Prompt 1: The Enduring Spirit of Eritrean Independence**

युद्ध… यह सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि लाखों जिंदगियों, अनगिनत बलिदानों और अदम्य साहस की एक लंबी गाथा है। जब मैं इरिट्रियाई स्वतंत्रता संग्राम के बारे में पढ़ता हूँ, तो वाकई महसूस होता है कि कैसे एक छोटे से राष्ट्र ने अपनी पहचान और स्वायत्तता के लिए दशकों तक संघर्ष किया होगा। यह कोई साधारण लड़ाई नहीं थी; यह उपनिवेशवाद की गहरी जड़ों और आत्मनिर्णय की अदम्य इच्छा के बीच का एक भीषण द्वंद्व था, जिसने न केवल अफ्रीका के इतिहास को बल्कि वैश्विक भू-राजनीतिक परिदृश्य को भी गहरा प्रभावित किया। आज भी, इस युद्ध के परिणाम और इसके द्वारा सिखाए गए सबक हमें राष्ट्रीय संप्रभुता और मानवाधिकारों के महत्व की याद दिलाते हैं, जो मौजूदा वैश्विक संघर्षों में भी प्रासंगिक हैं। इस संघर्ष ने आधुनिक युग में राष्ट्र-निर्माण की जटिलताओं और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की भूमिका पर कई अहम सवाल खड़े किए हैं, जिनकी गूंज आज भी सुनाई देती है। आइए, ठीक से जानते हैं।

युद्ध… यह सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि लाखों जिंदगियों, अनगिनत बलिदानों और अदम्य साहस की एक लंबी गाथा है। जब मैं इरिट्रियाई स्वतंत्रता संग्राम के बारे में पढ़ता हूँ, तो वाकई महसूस होता है कि कैसे एक छोटे से राष्ट्र ने अपनी पहचान और स्वायत्तता के लिए दशकों तक संघर्ष किया होगा। यह कोई साधारण लड़ाई नहीं थी; यह उपनिवेशवाद की गहरी जड़ों और आत्मनिर्णय की अदम्य इच्छा के बीच का एक भीषण द्वंद्व था, जिसने न केवल अफ्रीका के इतिहास को बल्कि वैश्विक भू-राजनीतिक परिदृश्य को भी गहरा प्रभावित किया। आज भी, इस युद्ध के परिणाम और इसके द्वारा सिखाए गए सबक हमें राष्ट्रीय संप्रभुता और मानवाधिकारों के महत्व की याद दिलाते हैं, जो मौजूदा वैश्विक संघर्षों में भी प्रासंगिक हैं। इस संघर्ष ने आधुनिक युग में राष्ट्र-निर्माण की जटिलताओं और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की भूमिका पर कई अहम सवाल खड़े किए हैं, जिनकी गूंज आज भी सुनाई देती है। आइए, ठीक से जानते हैं।

स्वतंत्रता की अग्निपरीक्षा: उपनिवेशवाद से विद्रोह तक

अनद - 이미지 1

इरिट्रिया का इतिहास ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्ति के बाद भी संघर्षों से भरा रहा। जब द्वितीय विश्व युद्ध खत्म हुआ, तो यह एक उपनिवेशवादी खेल का मैदान बन गया, जहाँ बड़ी शक्तियाँ अपने भू-राजनीतिक हितों के लिए इस क्षेत्र को मोहरे की तरह इस्तेमाल कर रही थीं। मेरा दिल यह सोचकर भर आता है कि कैसे एक राष्ट्र को अपनी पहचान के लिए इतना संघर्ष करना पड़ा। 1952 में संयुक्त राष्ट्र के एक फेडरेशन प्रस्ताव के तहत इसे इथियोपिया के साथ जोड़ दिया गया, एक ऐसा फैसला जो इरिट्रियाई लोगों के लिए न्याय से कोसों दूर था। वे अपनी सांस्कृतिक पहचान, भाषा और स्वायत्तता को बचाने के लिए छटपटा रहे थे, लेकिन उनकी आवाज़ को दबा दिया गया। इथियोपिया ने धीरे-धीरे इरिट्रिया की स्वायत्तता को खत्म करना शुरू कर दिया, उनकी विधानसभा भंग कर दी, उनकी भाषा पर प्रतिबंध लगा दिए और उनके संस्थानों को अपने अधीन कर लिया। यह सब देखकर ऐसा लगता है मानो किसी के घर में घुसकर उसकी सारी पहचान छीन ली गई हो। यह अन्याय की पराकाष्ठा थी और इसी अन्याय ने प्रतिरोध की चिंगारी को हवा दी। 1961 में, इरिट्रियाई लिबरेशन फ्रंट (ELF) का गठन हुआ और उन्होंने सशस्त्र संघर्ष का बिगुल बजा दिया। यह सिर्फ एक विद्रोह नहीं था, बल्कि दशकों से दबे हुए स्वाभिमान का ज्वालामुखी था जो आखिरकार फट पड़ा था। लोग अब और चुप नहीं बैठने वाले थे; वे अपनी आज़ादी के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे। यह उनकी आत्मा की पुकार थी, जिसे कोई नहीं रोक सकता था।

1.1. फेडरेशन से विलय तक: धोखे की कहानी

1952 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा इरिट्रिया को इथियोपिया के साथ एक फेडरेशन में शामिल करने का निर्णय, जैसा कि मैंने पढ़ा है, इरिट्रियाई लोगों के लिए एक कड़वी गोली थी। उन्हें लगा कि यह उनकी स्वतंत्रता को एक नए रूप में हथियाने जैसा है। इथियोपिया ने, अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं के चलते, इस फेडरेशन के प्रावधानों का उल्लंघन करना शुरू कर दिया। उन्होंने इरिट्रिया की कानूनी और संवैधानिक स्वायत्तता को धीरे-धीरे खत्म कर दिया। इरिट्रिया की अपनी भाषा, टिग्रिन्या, को हाशिये पर धकेल दिया गया और अम्हारिक को आधिकारिक भाषा के रूप में थोप दिया गया। यह ठीक वैसा ही था जैसे कोई आपसे आपकी ज़ुबान छीन ले, आपकी आवाज़ बंद कर दे। लोग अंदर ही अंदर घुटन महसूस कर रहे थे। इस स्थिति ने उनमें गुस्सा और निराशा भर दी, जिसने बाद में एक बड़े विद्रोह का रूप ले लिया। यह एक ऐसी घड़ी थी जब इरिट्रियाई लोगों को लगा कि उनके पास लड़ने के अलावा कोई चारा नहीं है, क्योंकि उनके अस्तित्व पर ही खतरा मंडरा रहा था।

1.2. सशस्त्र संघर्ष का उदय: मुक्ति की पहली लपटें

जब शांतिपूर्ण प्रतिरोध के सारे रास्ते बंद हो गए और इथियोपियाई दमन अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया, तो इरिट्रियाई लोगों के पास सशस्त्र संघर्ष ही एकमात्र विकल्प बचा। 1961 में हामिद इदरीस आवाटे के नेतृत्व में इरिट्रियाई लिबरेशन फ्रंट (ELF) का गठन हुआ। यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था। मुझे कल्पना करते ही सिहरन होती है कि कैसे मुट्ठी भर लोगों ने एक बड़ी सेना के खिलाफ हथियार उठाने का साहस किया होगा। उनकी शुरुआती लड़ाई गुरिल्ला युद्ध के रूप में शुरू हुई, जिसमें वे छोटे-छोटे हमलों से इथियोपियाई सेना को परेशान करते थे। यह आग धीरे-धीरे पूरे इरिट्रिया में फैल गई, और आम लोग, जिनमें किसान, छात्र और मजदूर भी शामिल थे, इस मुक्ति संग्राम में शामिल होते चले गए। यह सिर्फ सेना की लड़ाई नहीं थी, बल्कि पूरे समाज का सामूहिक संकल्प था अपनी आज़ादी के लिए। यह वह दौर था जब हर इरिट्रियाई अपनी ज़मीन और अपने भविष्य के लिए जूझ रहा था।

दशकों की गाथा: प्रतिरोध और लचीलापन

यह लड़ाई सिर्फ कुछ महीनों या सालों की नहीं थी, बल्कि पूरे तीन दशकों तक चली, जो अपने आप में एक अविश्वसनीय मानवीय धैर्य और दृढ़ संकल्प की कहानी है। मुझे याद है जब मैंने पहली बार इस संघर्ष की लंबी अवधि के बारे में पढ़ा था, तो मैं सोच में पड़ गया था कि कैसे एक पीढ़ी ने अपना पूरा जीवन इस युद्ध को समर्पित कर दिया होगा। इथियोपिया की सेना, जो अफ्रीका की सबसे बड़ी और सबसे अच्छी तरह से सुसज्जित सेनाओं में से एक थी, का सामना इरिट्रियाई स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने सीमित संसाधनों, अदम्य साहस और ज़मीन के प्रति गहरे लगाव के साथ किया। इरिट्रियाई पीपल्स लिबरेशन फ्रंट (EPLF) ने ELF के बाद एक नई ऊर्जा के साथ नेतृत्व संभाला, और वे न केवल सैन्य रणनीति में कुशल थे, बल्कि उन्होंने सामाजिक और आर्थिक सुधारों पर भी ध्यान दिया। उन्होंने अपने नियंत्रित क्षेत्रों में स्कूल, अस्पताल और यहां तक कि औद्योगिक इकाइयां भी स्थापित कीं, जिससे यह साबित हुआ कि वे सिर्फ युद्ध लड़ना नहीं जानते थे, बल्कि एक नए समाज का निर्माण भी कर रहे थे। उनकी लड़ाई सिर्फ बंदूकों से नहीं थी, बल्कि विचारधारा, संगठन और जनता के विश्वास से लड़ी गई थी। यह देखकर मेरी आँखें नम हो जाती हैं कि कैसे लोगों ने इतने मुश्किल हालात में भी उम्मीद नहीं छोड़ी और एकजुट होकर अपनी मंजिल की ओर बढ़ते रहे।

2.1. नेतृत्व का विकास: ELF से EPLF तक

शुरुआती वर्षों में इरिट्रियाई लिबरेशन फ्रंट (ELF) ने संघर्ष का नेतृत्व किया, लेकिन आंतरिक मतभेदों और राजनीतिक विभाजन ने उनकी ताकत को कमजोर कर दिया। यह किसी भी बड़े आंदोलन की एक दुखद सच्चाई होती है, जब एकजुटता की कमी उसे भीतर से खोखला कर देती है। 1970 के दशक में, एक नई ताकत उभरी – इरिट्रियाई पीपल्स लिबरेशन फ्रंट (EPLF)। इस संगठन ने अधिक केंद्रीकृत नेतृत्व, स्पष्ट विचारधारा और प्रभावी सैन्य रणनीतियों के साथ संघर्ष को एक नई दिशा दी। मुझे लगता है कि यह ठीक वैसे ही था जैसे एक पुराना पेड़ सूखने लगे और उसकी जगह एक नया, मजबूत पौधा उग आए। EPLF ने ELF के साथ प्रतिस्पर्धा की, और अंततः, 1980 के दशक तक, वे इरिट्रियाई स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख शक्ति बन गए। उन्होंने गुरिल्ला रणनीति से लेकर पारंपरिक सैन्य युद्ध तक, हर मोर्चे पर अपनी काबिलियत साबित की। उनकी संगठनात्मक क्षमता और अनुशासन ने उन्हें इथियोपियाई सेना के खिलाफ कई महत्वपूर्ण जीत दिलाईं, जिसने पूरे क्षेत्र में उनकी धाक जमा दी।

2.2. महिलाओं की भूमिका: युद्ध में आधी आबादी की पूरी भागीदारी

इरिट्रियाई स्वतंत्रता संग्राम की एक सबसे प्रेरणादायक विशेषता महिलाओं की असाधारण भूमिका थी। यह कोई मामूली बात नहीं थी कि महिलाओं ने पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर, बल्कि कई बार उनसे आगे बढ़कर इस लड़ाई में भाग लिया। वे सिर्फ सहायताकर्मी या रसद संभालने वाली नहीं थीं; उन्होंने सीधे युद्ध के मैदान में भी हथियार उठाए। मेरी समझ से, यह उस समाज की गहरी जड़ें तोड़ने जैसा था जहाँ महिलाओं को अक्सर घर की चारदीवारी तक सीमित रखा जाता है। इरिट्रियाई महिलाओं ने लड़ाकों, कमांडरों, चिकित्साकर्मियों और राजनीतिक आयोजकों के रूप में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं। EPLF ने लैंगिक समानता को अपने आंदोलन के मूल सिद्धांतों में से एक बनाया, जिसने महिलाओं को सशक्त होने और अपनी पूरी क्षमता से योगदान करने का अवसर दिया। यह दिखाता है कि जब समाज महिलाओं को अवसर देता है, तो वे क्या कुछ नहीं कर सकतीं। उनकी बहादुरी और बलिदान ने न केवल स्वतंत्रता दिलाई, बल्कि इरिट्रियाई समाज में महिलाओं की स्थिति को भी हमेशा के लिए बदल दिया।

जमीनी हकीकत: युद्ध की मानवीय कीमत

किसी भी युद्ध का सबसे दुखद पहलू उसकी मानवीय कीमत होती है। इरिट्रियाई स्वतंत्रता संग्राम भी इससे अछूता नहीं रहा। जब मैं उन कहानियों के बारे में पढ़ता हूँ जहाँ लाखों लोग विस्थापित हुए, अनगिनत लोगों ने अपनी जान गंवाई और बच्चों को शिक्षा से वंचित रहना पड़ा, तो मेरा मन करुणा से भर उठता है। युद्ध के कारण हजारों गाँव तबाह हो गए, कृषि भूमि बंजर हो गई और अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ठप पड़ गई। लोगों को अपने घर छोड़कर पड़ोसी देशों, जैसे सूडान, में शरण लेनी पड़ी। मुझे कल्पना करते ही रूह काँप जाती है कि अपने ही वतन में बेघर होने का दर्द कितना गहरा होता होगा। शरणार्थी शिविरों में जीवन बेहद कठिन था, जहाँ उन्हें बुनियादी सुविधाओं के लिए भी संघर्ष करना पड़ता था। बच्चों ने युद्ध को ही अपनी बचपन की सच्चाई के रूप में देखा। वे न तो स्कूल जा पाते थे और न ही उन्हें खेल-कूद का मौका मिलता था। मानसिक आघात और PTSD (पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर) आम बात थी। यह युद्ध इरिट्रियाई समाज पर एक गहरा, स्थायी घाव छोड़ गया, जिसकी भरपाई आज भी मुश्किल है। एक पूरी पीढ़ी ने अपने सपनों और भविष्य को युद्ध की भेंट चढ़ा दिया।

3.1. विस्थापन और शरणार्थी संकट

तीस साल के इस भीषण संघर्ष ने इरिट्रिया की आबादी को बड़े पैमाने पर विस्थापित किया। लाखों लोग अपने घरों को छोड़कर भागने को मजबूर हुए। सूडान इसका सबसे बड़ा गवाह बना, जहाँ हज़ारों इरिट्रियाई शरणार्थियों ने शरण ली। मुझे हमेशा यह बात परेशान करती है कि कैसे लोग अपनी जड़ों से उखड़ जाते हैं और दूसरों की दया पर जीने को मजबूर होते हैं। इन शरणार्थी शिविरों में अमानवीय परिस्थितियाँ थीं: भोजन, पानी और चिकित्सा सुविधाओं की भारी कमी। बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे थे और बीमारियाँ तेज़ी से फैल रही थीं। महिलाओं और लड़कियों को यौन हिंसा और शोषण का सामना करना पड़ता था। यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि ऐसे हालात में किसी ने कैसे अपनी गरिमा और उम्मीद को बनाए रखा होगा। यह दिखाता है कि युद्ध केवल बंदूक और बारूद का खेल नहीं होता, बल्कि यह लाखों जिंदगियों को तबाह कर देता है, उनकी पहचान छीन लेता है।

3.2. आधारभूत संरचना का विनाश और आर्थिक प्रभाव

युद्ध ने इरिट्रिया की आधारभूत संरचना को पूरी तरह से तबाह कर दिया। सड़कें, पुल, स्कूल, अस्पताल – सब कुछ खंडहर में बदल गया। कृषि, जो इरिट्रिया की अर्थव्यवस्था की रीढ़ थी, बुरी तरह प्रभावित हुई क्योंकि खेत खदानों से भर गए या पानी की कमी से सूख गए। मुझे लगता है कि यह किसी भी देश के विकास को दशकों पीछे धकेलने जैसा था। औद्योगिक उत्पादन ठप हो गया और व्यापार पूरी तरह से रुक गया। इस विनाश का मतलब था कि जब इरिट्रिया को आज़ादी मिली, तो उसे सिर्फ एक नया देश नहीं बनाना था, बल्कि ज़मीन से फिर से सब कुछ खड़ा करना था। इस आर्थिक तबाही ने न केवल लोगों के जीवन स्तर को गिराया, बल्कि भविष्य में विकास की संभावनाओं को भी सीमित कर दिया। यह सिर्फ भौतिक नुकसान नहीं था, बल्कि एक पीढ़ी के अवसरों का नुकसान भी था।

अंतर्राष्ट्रीय मंच पर: चुप्पी और समर्थन का द्वंद्व

किसी भी बड़े संघर्ष में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की भूमिका हमेशा एक पेचीदा विषय रही है। इरिट्रियाई स्वतंत्रता संग्राम के मामले में भी यह कोई अपवाद नहीं था। मैंने कई बार सोचा है कि जब एक देश दशकों तक अपनी आज़ादी के लिए लड़ रहा हो, तो दुनिया ने उसकी मदद क्यों नहीं की? शुरुआत में, इरिट्रियाई लोगों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत कम समर्थन मिला। संयुक्त राष्ट्र और अधिकांश पश्चिमी देशों ने इथियोपिया की क्षेत्रीय अखंडता का समर्थन किया, क्योंकि उस समय इथियोपिया सोवियत संघ के प्रभाव को रोकने में एक महत्वपूर्ण अमेरिकी सहयोगी था। यह ठीक वैसा ही था जैसे किसी बड़े झगड़े में, आप सच जानते हुए भी शक्तिशाली पक्ष का साथ दें। मानवाधिकारों के घोर उल्लंघन के बावजूद, बड़ी शक्तियाँ चुप रहीं। हालांकि, कुछ अफ्रीकी और अरब देशों ने, जैसे कि सूडान और कुछ अरब लीग के सदस्यों ने, इरिट्रियाई लोगों के प्रति सहानुभूति दिखाई और उन्हें सीमित सहायता प्रदान की। लेकिन यह बड़े पैमाने पर नहीं था। बाद के वर्षों में, जब इथियोपिया में सरकार बदली और क्षेत्र में भू-राजनीतिक समीकरण बदले, तो अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का रुख थोड़ा नरम पड़ा। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और लाखों लोगों को अपना सब कुछ खोना पड़ा था। यह मुझे हमेशा यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता, भू-राजनीतिक हितों से ऊपर उठकर कभी सचमुच काम कर सकती है?

4.1. महाशक्तियों का उदासीन रुख

शीत युद्ध के दौरान, इथियोपिया हॉर्न ऑफ अफ्रीका में एक महत्वपूर्ण रणनीतिक बिंदु था। पहले संयुक्त राज्य अमेरिका और बाद में सोवियत संघ, दोनों ने अपने भू-राजनीतिक हितों के लिए इथियोपियाई सरकार का समर्थन किया। मुझे लगता है कि यह ठीक वैसे ही था जैसे शतरंज के खेल में, एक छोटे प्यादे की परवाह न करके बड़े मोहरे को बचाया जाए। इरिट्रियाई स्वतंत्रता आंदोलन को, एक राष्ट्रवादी और कभी-कभी वामपंथी झुकाव वाले आंदोलन के रूप में, इन महाशक्तियों द्वारा बहुत कम सहानुभूति मिली। उनकी प्राथमिक चिंता क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखना और अपने सहयोगियों को मजबूत करना था, न कि इरिट्रियाई लोगों के आत्मनिर्णय का अधिकार। इस उदासीनता ने इरिट्रियाई संघर्ष को और लंबा खींच दिया और मानवीय पीड़ा को बढ़ा दिया। वे अकेले ही अपनी लड़ाई लड़ रहे थे, बिना किसी बड़े अंतर्राष्ट्रीय समर्थन के।

4.2. क्षेत्रीय और मानवीय सहायता

हालांकि महाशक्तियों का रुख ठंडा था, कुछ क्षेत्रीय देश और अंतर्राष्ट्रीय मानवीय संगठन इरिट्रियाई शरणार्थियों और प्रभावित लोगों की मदद के लिए आगे आए। सूडान ने इरिट्रियाई लोगों के लिए अपनी सीमाएँ खोलीं, जो एक बड़ा मानवीय कार्य था। मुझे यह जानकर थोड़ा सुकून मिलता है कि कुछ तो थे जो दर्द में साथ खड़े थे। विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) और संयुक्त राष्ट्र की कुछ एजेंसियों ने शरणार्थी शिविरों में भोजन, चिकित्सा और आश्रय प्रदान किया। हालाँकि यह सहायता विशाल मानवीय संकट के सामने कम थी, इसने लाखों लोगों को जीवित रहने में मदद की। यह दर्शाता है कि मानवता के कुछ हिस्से में अभी भी करुणा ज़िंदा थी, भले ही बड़े राजनीतिक खिलाड़ियों ने आँखें मूँद ली हों।

विजय का सूर्योदय: एक राष्ट्र का जन्म

तीस साल के अटूट संघर्ष और अनगिनत बलिदानों के बाद, आखिरकार इरिट्रियाई लोगों की जीत हुई। जब मैंने इस पल के बारे में पढ़ा, तो मुझे लगा कि जैसे इतने सालों के इंतज़ार के बाद किसी को अपना सबसे बड़ा सपना पूरा होते देखने का अनुभव होता है। 1991 में, इरिट्रियाई पीपल्स लिबरेशन फ्रंट (EPLF) ने इथियोपियाई राजधानी अदीस अबाबा पर कब्ज़ा कर लिया, और इसी के साथ दरग शासन का अंत हुआ। यह एक ऐसा ऐतिहासिक क्षण था जिसने इरिट्रिया के भविष्य को हमेशा के लिए बदल दिया। लेकिन EPLF ने सीधे सत्ता नहीं संभाली; उन्होंने एक जनमत संग्रह कराने का वादा किया ताकि इरिट्रियाई लोग लोकतांत्रिक तरीके से अपने भविष्य का फैसला कर सकें। 1993 में, इरिट्रिया में एक जनमत संग्रह हुआ, जहाँ 99.8% लोगों ने स्वतंत्रता के पक्ष में वोट किया। यह सिर्फ एक आंकड़ा नहीं था, बल्कि इरिट्रियाई लोगों की एकजुटता और स्वतंत्रता की अदम्य इच्छा का प्रमाण था। मुझे लगता है कि यह वो पल था जब इतिहास ने अपने पन्ने पलटे और एक नया अध्याय शुरू हुआ। 24 मई 1993 को, इरिट्रिया ने औपचारिक रूप से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की और संयुक्त राष्ट्र का 182वाँ सदस्य बना। यह सिर्फ एक राजनीतिक घटना नहीं थी, बल्कि एक पूरी पीढ़ी के सपनों की सार्थकता और उनके बलिदानों का सम्मान था। यह वाकई एक ऐसा पल था जब दुनिया ने देखा कि दृढ़ संकल्प और न्याय की लड़ाई कभी बेकार नहीं जाती।

5.1. अंतिम आक्रमण और विजय

1980 के दशक के उत्तरार्ध में, EPLF ने इथियोपियाई सेना के खिलाफ कई निर्णायक सैन्य जीत हासिल कीं। सोवियत संघ के पतन और इथियोपियाई दरग शासन के कमजोर पड़ने से EPLF को एक बड़ा मौका मिला। मुझे कल्पना करते ही उत्साह होता है कि कैसे वे अपनी जीत की ओर कदम बढ़ा रहे होंगे। 1990 में मसीवा के महत्वपूर्ण बंदरगाह पर कब्ज़ा करना एक गेम-चेंजर साबित हुआ, जिसने इथियोपियाई सेना की आपूर्ति लाइनों को काट दिया। 1991 में, EPLF ने अन्य इथियोपियाई विद्रोही समूहों के साथ मिलकर अदीस अबाबा पर आक्रमण किया और दरग शासन को गिरा दिया। यह संघर्ष का अंत था, जिसने इरिट्रिया को अपनी नियति खुद लिखने का अवसर दिया। यह कोई आसान जीत नहीं थी, बल्कि वर्षों के सैन्य प्रशिक्षण, रणनीति और अदम्य साहस का परिणाम था।

5.2. जनमत संग्रह और संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता

विजय के बाद, EPLF ने वादा किया कि वे इरिट्रियाई लोगों को अपने भविष्य का फैसला करने देंगे। 1993 में आयोजित जनमत संग्रह एक शांतिपूर्ण और पारदर्शी प्रक्रिया थी, जिसे अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने भी मान्यता दी। लोगों ने लंबी कतारों में खड़े होकर अपनी पहचान और स्वतंत्रता के लिए वोट दिया। यह एक भावनात्मक क्षण था, जब हर किसी की आँखों में एक नए भविष्य की चमक थी। 24 मई 1993 को, इरिट्रिया ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की, और राष्ट्रपति इसाईस अफवेरकी पहले राष्ट्रपति बने। इस दिन मुझे लगा कि जैसे दशकों से जलाया गया दीपक आखिरकार रोशन हो गया हो। इरिट्रिया की संयुक्त राष्ट्र में सदस्यता ने उसे अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में स्थापित किया। यह न केवल इरिट्रियाई लोगों की जीत थी, बल्कि दुनिया भर के उन सभी लोगों के लिए एक प्रेरणा थी जो आत्मनिर्णय के लिए लड़ रहे हैं।

आज के सबक: संघर्ष और भविष्य

इरिट्रियाई स्वतंत्रता संग्राम हमें कई महत्वपूर्ण सबक सिखाता है, जो आज भी प्रासंगिक हैं। यह संघर्ष इस बात का प्रमाण है कि राष्ट्रीय संप्रभुता और आत्मनिर्णय का अधिकार कितना महत्वपूर्ण है। मुझे लगता है कि यह कहानी हमें यह याद दिलाती है कि किसी भी राष्ट्र की पहचान को दबाया नहीं जा सकता, और न्याय के लिए लड़ने की इच्छा कभी मरती नहीं। यह हमें सिखाता है कि कैसे छोटे राष्ट्र भी, अगर उनमें अदम्य इच्छाशक्ति और एकजुटता हो, तो बड़ी शक्तियों के खिलाफ भी खड़े हो सकते हैं और जीत हासिल कर सकते हैं। हालांकि, स्वतंत्रता के बाद इरिट्रिया को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, जिनमें इथियोपिया के साथ सीमा विवाद और आंतरिक राजनीतिक स्थिरता शामिल है। यह मुझे हमेशा यह सोचने पर मजबूर करता है कि स्वतंत्रता प्राप्त करना सिर्फ आधी लड़ाई है; असली चुनौती तो उसके बाद राष्ट्र का निर्माण करना और उसे स्थिर रखना है। इस युद्ध ने यह भी दिखाया कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की उदासीनता कैसे संघर्षों को लंबा खींच सकती है और मानवीय पीड़ा को बढ़ा सकती है। हमें इन गलतियों से सीखना चाहिए ताकि भविष्य में ऐसे संघर्षों को समय रहते सुलझाया जा सके। आज जब हम इरिट्रिया को देखते हैं, तो यह संघर्ष हमें याद दिलाता है कि शांति और समृद्धि सिर्फ तभी संभव है जब मानवाधिकारों का सम्मान हो और हर राष्ट्र को अपनी नियति तय करने का अधिकार मिले।

6.1. राष्ट्रीय संप्रभुता का महत्व

इरिट्रियाई स्वतंत्रता संग्राम ने राष्ट्रीय संप्रभुता के महत्व को पूरी दुनिया के सामने उजागर किया। यह दिखाता है कि कैसे एक राष्ट्र अपनी ज़मीन, अपनी संस्कृति और अपनी पहचान के लिए दशकों तक संघर्ष कर सकता है। मुझे लगता है कि यह हर देश के लिए एक प्रेरणा है कि वह अपनी सीमाओं और अपने लोगों के अधिकारों की रक्षा करे, चाहे चुनौतियाँ कितनी भी बड़ी क्यों न हों। इरिट्रियाई लोगों ने साबित किया कि वे किसी भी कीमत पर अपनी स्वतंत्रता से समझौता नहीं करेंगे। यह हमें यह भी सिखाता है कि बाहरी शक्तियों द्वारा थोपी गई नीतियां कितनी विनाशकारी हो सकती हैं और कैसे वे एक राष्ट्र को आंतरिक संघर्षों में धकेल सकती हैं। इस युद्ध से यह स्पष्ट संदेश मिलता है कि हर राष्ट्र को अपने भविष्य का फैसला करने का अधिकार है और इस अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए।

6.2. अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की जिम्मेदारी

इरिट्रियाई संघर्ष में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की शुरुआती उदासीनता एक दुखद सबक है। यह दिखाता है कि जब बड़ी शक्तियाँ अपने भू-राजनीतिक हितों को मानवाधिकारों और आत्मनिर्णय के अधिकार से ऊपर रखती हैं, तो परिणाम कितने भयावह हो सकते हैं। मुझे लगता है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की एक बड़ी जिम्मेदारी है कि वह ऐसे संघर्षों में निष्पक्षता और नैतिकता के साथ हस्तक्षेप करे, न कि केवल अपने लाभ के लिए। उन्हें समय रहते शांतिपूर्ण समाधान खोजने के लिए काम करना चाहिए और मानवीय संकटों को रोकने के लिए सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। इरिट्रिया की कहानी हमें याद दिलाती है कि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और सामूहिक जिम्मेदारी ही वैश्विक शांति और स्थिरता की कुंजी है। हमें उन गलतियों से सीखना चाहिए जो अतीत में हुईं, ताकि भविष्य में और इरिट्रिया न बनें।

आजादी के बाद की चुनौतियां: शांति और समृद्धि की राह

स्वतंत्रता प्राप्त करना इरिट्रिया के लिए एक बड़ी जीत थी, लेकिन इसके बाद की राह आसान नहीं थी। मुझे अक्सर लगता है कि युद्ध जीतना एक बात है और शांति स्थापित करना और उसे बनाए रखना दूसरी। इरिट्रिया ने एक युद्ध-ग्रस्त देश के रूप में अपनी यात्रा शुरू की, जहाँ बुनियादी ढाँचा ध्वस्त था और अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त। सबसे बड़ी चुनौती थी एक स्थिर और लोकतांत्रिक शासन प्रणाली स्थापित करना। इथियोपिया के साथ सीमा विवाद भी एक बड़ी समस्या बन गया, जिसने 1998 से 2000 तक एक और भीषण युद्ध को जन्म दिया। यह मेरे लिए बहुत दुखद था कि इतने लंबे संघर्ष के बाद भी, शांति पूरी तरह से नहीं आ पाई। इस संघर्ष ने इरिट्रिया को और अधिक सैन्यीकृत कर दिया, जिससे उसकी आर्थिक और सामाजिक प्रगति बाधित हुई। मानवाधिकारों की स्थिति और आंतरिक राजनीतिक स्वतंत्रता भी चिंता का विषय बनी हुई है। मुझे उम्मीद है कि इरिट्रिया के लोग, जिन्होंने इतने संघर्ष और बलिदान के बाद अपनी आज़ादी हासिल की है, अब एक स्थिर और समृद्ध भविष्य का निर्माण कर पाएंगे। यह एक लंबी और मुश्किल यात्रा है, लेकिन उनकी अदम्य भावना मुझे विश्वास दिलाती है कि वे अंततः सफल होंगे।

7.1. इथियोपिया के साथ सीमा विवाद और क्षेत्रीय अस्थिरता

इरिट्रिया की स्वतंत्रता के बाद भी, इथियोपिया के साथ उसका रिश्ता तनावपूर्ण बना रहा, जिसका मुख्य कारण दोनों देशों के बीच सीमा का अनसुलझा विवाद था। यह ठीक वैसा ही था जैसे दो भाई बरसों की लड़ाई के बाद भी एक-दूसरे से नाराज़ हों। 1998 में, यह विवाद एक पूर्ण युद्ध में बदल गया, जिसमें हजारों लोगों की जान चली गई। मुझे यह जानकर बहुत निराशा हुई कि जिस देश ने अपनी आज़ादी के लिए इतना खून बहाया, उसे फिर से युद्ध का सामना करना पड़ा। इस संघर्ष ने दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर बुरा असर डाला और पूरे हॉर्न ऑफ अफ्रीका क्षेत्र में अस्थिरता बढ़ा दी। हालाँकि 2018 में दोनों देशों के बीच एक शांति समझौता हुआ, लेकिन दशकों की कड़वाहट और अविश्वास को खत्म करना एक लंबी प्रक्रिया है। यह क्षेत्रीय शांति और विकास के लिए एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।

7.2. आंतरिक चुनौतियां: राष्ट्र-निर्माण का सफर

स्वतंत्रता के बाद इरिट्रिया ने राष्ट्र-निर्माण की कठिन यात्रा शुरू की। उन्हें एक ऐसी अर्थव्यवस्था बनानी थी जो युद्ध के घावों से उबर सके, और एक ऐसा समाज बनाना था जहाँ सभी नागरिक समान रूप से रह सकें। मुझे यह स्वीकार करना होगा कि यह एक आसान काम नहीं है, खासकर तब जब देश में दशकों तक युद्ध चला हो। हालाँकि EPLF ने शुरुआती वर्षों में कुछ प्रगति की, लेकिन देश ने धीरे-धीरे केंद्रीकृत और सत्तावादी शासन की ओर रुख किया। मानवाधिकारों की चिंताएँ, मीडिया की स्वतंत्रता का अभाव और अनिवार्य राष्ट्रीय सेवा की लंबी अवधि, ये सभी मुद्दे देश के भीतर चर्चा का विषय बने रहे। इरिट्रिया के लिए चुनौती यह है कि वह अपने लोगों को वह स्वतंत्रता और समृद्धि दे जिसके लिए उन्होंने इतना लंबा और खूनी संघर्ष किया था। यह एक ऐसा सफर है जो अभी भी जारी है, और मुझे उम्मीद है कि इरिट्रिया भविष्य में एक मजबूत और लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में उभरेगा।

वर्ष महत्वपूर्ण घटनाक्रम विवरण
1952 संयुक्त राष्ट्र का फेडरेशन प्रस्ताव इरिट्रिया को इथियोपिया के साथ फेडरेशन में जोड़ा गया।
1961 इरिट्रियाई लिबरेशन फ्रंट (ELF) का गठन हमला तेक्लय द्वारा सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत।
1970 के दशक इरिट्रियाई पीपल्स लिबरेशन फ्रंट (EPLF) का उदय EPLF ने ELF से नेतृत्व संभाला और संघर्ष को नई दिशा दी।
1991 अदीस अबाबा पर EPLF का कब्ज़ा इथियोपियाई दरग शासन का अंत, इरिट्रिया की प्रभावी स्वतंत्रता।
1993 इरिट्रियाई स्वतंत्रता जनमत संग्रह 99.8% इरिट्रियाई लोगों ने स्वतंत्रता के पक्ष में मतदान किया।
1993 इरिट्रिया की औपचारिक स्वतंत्रता 24 मई को स्वतंत्रता की घोषणा और संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता।
1998-2000 इथियोपिया-इरिट्रिया सीमा युद्ध दोनों देशों के बीच सीमा विवाद पर एक और बड़ा संघर्ष।
2018 इथियोपिया और इरिट्रिया के बीच शांति समझौता दशकों के तनाव के बाद शांति और कूटनीतिक संबंधों की बहाली।

लेख समाप्त करते हुए

इरिट्रिया का स्वतंत्रता संग्राम सिर्फ एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि अदम्य साहस, अनगिनत बलिदानों और मानव आत्मा की दृढ़ता की एक अविस्मरणीय गाथा है। मुझे लगता है कि यह कहानी हमें हमेशा याद दिलाती रहेगी कि न्याय और आत्मनिर्णय के लिए लड़ने की इच्छा को कोई भी शक्ति मिटा नहीं सकती। दशकों तक चले इस भीषण युद्ध ने भले ही बहुत कुछ छीन लिया हो, लेकिन इसने एक राष्ट्र को उसकी पहचान और स्वतंत्रता वापस दिलाई। आज भी, यह संघर्ष हमें सिखाता है कि शांति और समृद्धि की राह पर चलना कितना कठिन हो सकता है, लेकिन यदि एकजुटता और संकल्प हो तो कोई भी मंजिल दूर नहीं।

जानने योग्य उपयोगी जानकारी

1. इरिट्रियाई स्वतंत्रता संग्राम लगभग 30 वर्षों तक चला, जो आधुनिक अफ्रीका के सबसे लंबे संघर्षों में से एक है।

2. इस युद्ध में इरिट्रियाई लिबरेशन फ्रंट (ELF) और बाद में इरिट्रियाई पीपल्स लिबरेशन फ्रंट (EPLF) प्रमुख संगठन थे।

3. इरिट्रियाई महिलाओं ने इस संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लिया, न केवल सहायता कार्यों में बल्कि सीधे युद्ध के मैदान में भी लड़ाकों के रूप में।

4. इथियोपिया-इरिट्रिया फेडरेशन को 1952 में संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के तहत स्थापित किया गया था, लेकिन इथियोपिया द्वारा स्वायत्तता के हनन ने युद्ध को जन्म दिया।

5. इरिट्रिया ने 24 मई 1993 को एक जनमत संग्रह के बाद अपनी औपचारिक स्वतंत्रता की घोषणा की और संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बना।

मुख्य बातें

इरिट्रियाई स्वतंत्रता संग्राम उपनिवेशवाद, आत्मनिर्णय के अधिकार और राष्ट्रीय संप्रभुता के महत्व पर प्रकाश डालता है। यह संघर्ष दशकों तक चला, जिसमें इरिट्रियाई लोगों को इथियोपियाई दमन, महाशक्तियों की उदासीनता और बड़े पैमाने पर मानवीय संकट का सामना करना पड़ा। हालांकि, उनके अदम्य साहस, एकजुटता और EPLF के प्रभावी नेतृत्व ने अंततः उन्हें 1993 में स्वतंत्रता दिलाई। युद्ध ने इरिट्रिया की आधारभूत संरचना को तबाह कर दिया और आज भी देश आंतरिक तथा क्षेत्रीय चुनौतियों से जूझ रहा है, जिनमें इथियोपिया के साथ सीमा विवाद और राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया शामिल है। यह कहानी हमें अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की जिम्मेदारी और शांतिपूर्ण समाधानों की तलाश के महत्व की याद दिलाती है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ) 📖

प्र: इरिट्रिया ने अपनी आज़ादी के लिए इतने लंबे समय तक संघर्ष क्यों किया, आखिर इसकी क्या वजह थी?

उ: इरिट्रिया का संघर्ष सिर्फ ज़मीन के एक टुकड़े का झगड़ा नहीं था, ये तो अपनी पहचान, अपनी संस्कृति और अपनी आवाज़ की लड़ाई थी। सोचो, जब दशकों तक तुम्हें किसी और के हिसाब से चलना पड़े, तुम्हारी आज़ादी को छीन लिया जाए और तुम्हारी अपनी पहचान दबाई जाए, तो अंदर ही अंदर एक आग सुलगती है। इथियोपिया के साथ एक संघ बनाना और फिर उसका ऐसे जबरन विलय कर देना, ये इरिट्रियाई लोगों के गले ही नहीं उतरा। उन्हें लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है, उनकी आज़ादी छीन ली गई है। मुझे याद है, एक बार एक पुराने दस्तावेज़ में पढ़ा था कि कैसे इरिट्रियाई लोग अपने झंडे तले आज़ाद सांस लेना चाहते थे, अपनी मातृभूमि पर अपना शासन चाहते थे। ये सिर्फ राजनीतिक फैसला नहीं था, ये दिल की पुकार थी, एक राष्ट्र के आत्मनिर्णय की अदम्य इच्छा थी।

प्र: इरिट्रियाई स्वतंत्रता सेनानियों ने एक बड़ी ताकतवर सेना के सामने सफलता कैसे हासिल की? उनकी रणनीति क्या थी?

उ: इरिट्रियाई स्वतंत्रता सेनानियों की कहानी तो वाकई प्रेरणादायक है। जब तुम देखते हो कि एक छोटा-सा देश एक इतनी बड़ी और ताक़तवर सेना के सामने खड़ा हो जाता है, तो अचरज होता है। ये कोई आम लड़ाई नहीं थी। उनके पास न तो उतने हथियार थे और न ही उतनी बड़ी सेना। लेकिन, उनमें एक बात थी जो किसी भी बड़े हथियार से ज़्यादा शक्तिशाली थी – वो थी आज़ादी की ज़िद, अपनी मिट्टी के लिए मर-मिटने का जुनून और अटूट संकल्प। मुझे लगता है, उन्होंने गुरिल्ला युद्ध की ऐसी मिसाल पेश की, जिससे बड़ी-बड़ी सेनाएं भी सोच में पड़ गईं। वे अपने इलाक़े को बखूबी समझते थे, लोगों का समर्थन उनके साथ था, और वे छोटे-छोटे हमलों से दुश्मन को लगातार थकाते रहे। कई बार तो सोचता हूँ, कैसे ऐसे मुश्किल हालात में भी वे उम्मीद नहीं छोड़ते थे, कैसे विपरीत परिस्थितियों में भी एक-दूसरे का साथ देते थे। ये सिर्फ सैनिकों की लड़ाई नहीं थी, ये पूरे समाज की लड़ाई थी, जहाँ हर बच्चे, हर बूढ़े ने अपना योगदान दिया।

प्र: इस युद्ध का इरिट्रिया और पूरे क्षेत्र पर क्या स्थायी प्रभाव पड़ा है और इससे हमें क्या सबक मिलते हैं?

उ: इस युद्ध का प्रभाव केवल इरिट्रिया पर ही नहीं, बल्कि पूरे हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका पर पड़ा है, और इसके गहरे निशान आज भी देखे जा सकते हैं। जब कोई देश इतने लंबे और भीषण संघर्ष के बाद आज़ादी पाता है, तो एक अजीब-सी मिली-जुली भावना होती है – राहत और खुशी के साथ-साथ, सालों के युद्ध के गहरे ज़ख्म भी होते हैं। मुझे लगता है, इरिट्रिया ने अपनी आज़ादी तो पाई, लेकिन उसके बाद राष्ट्र-निर्माण की चुनौती कितनी बड़ी रही होगी, ये समझना मुश्किल नहीं। क्षेत्रीय अस्थिरता, पड़ोसी देशों से संबंध, और अपने लोगों के लिए बेहतर भविष्य बनाना – ये सब आसान नहीं था। ये युद्ध हमें सिखाता है कि आज़ादी की कीमत क्या होती है, और कैसे संघर्ष के बाद भी शांति और स्थिरता बनाए रखना एक सतत प्रयास है। आज भी जब अफ्रीका के दूसरे हिस्सों में संघर्ष देखता हूँ, तो इरिट्रिया के अनुभव से एक सबक मिलता है कि सच्ची शांति केवल हथियारों के दम पर नहीं, बल्कि आपसी समझ, संवाद और सह-अस्तित्व से ही आती है। यह हमें यह भी याद दिलाता है कि संप्रभुता और आत्मनिर्णय का अधिकार कितना महत्वपूर्ण है।